यदि आप किसी खाते-पीते ऐसे मध्यवर्गीय परिवार के घर में घुसें, जो अपनी दो बेटियों की शादी की तैयारियों में जुटा हो, तो कम से उस दृश्य की कल्पना तो नहीं करेंगे, जो हमने मुजफ्फरनगर शहर के सरवट रोड पर बने हाजी हामिद हसन के तीन मंजिला मकान में घुसने पर देखा थालगता था कि एक भयानक झंझावात अपनी तमाम शिद्दत से उस भरे-पूरे कारोबारी परिवार को झकझोरता चला गया था। यह तूफान खाकी और नीले कपड़े पहने उत्तर प्रदेश पलिस और रैपिड ऐक्शन फोर्स के जवानों के घर में घुसने से पैदा हुआ था। उन्होंने अपनी लाठियों से घर भर में टूट सकने वाले सामान तो तोड़ ही डाले, दोनों बेटियों की भावी गृहस्थी लिए बड़े शौक से तिनका-तिनका जोड़ा गया सामान भी इस लायक नहीं छोड़ा कि कोई मांबाप अपनी लाडली की विदाई में उसे भेजनेके बारे में सोच सके। जो कुछ जेबों में समा सकता था वह गायब हो गया। 12-14 साल के जिन बन्नों के गिर गा पैर दस पलिसिया कार्रवाई के दौरान टे थे, उनके घाव शरीर से अधिक उनकी चेतना पर दर्ज हए थे। एक बच्चा अपने घावों पर पट्टी करवाने के लिए घर से निकलने में डरता है कि बाहर सड़क पर पुलिस वाले खडे हैं और दसरी छोटी सी बच्ची रात में सोतेसोते पसीने से भीग जाती है। बरे सपनों में पलिस उसे सोने नहीं देती। शरीर के जख्म तो वक्त के साथ भर जाएंगे, पर मन के घाव पता नहीं कब तक रिसते रहेंगे।
पिछले एक पखवाड़े के दौरान नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के विरोध के सिलसिले में जो कुछ देश के विभिन्न क्षेत्रों में स?कों पर घटा, उसने कई मामलों में हमारी पारंपरिक सोच को गड़बड़ा दिया है। हममें से बहुत यह मानने लगे थे कि हिंदुओं और मुसलमानों के दो राष्ट्र होने की अवधारणा हमने बहुत पहले 1950 के दशक में ही दफना दी है और अब एक खूबसूरत संविधान के जरिए हम धर्मनिरपेक्ष समाज बनने की दिशा में चल पड़े हैं। फिर यह क्यों संभव हुआ कि मेरठ में एक एसपी मुसलमानों को ललकार रहा है कि उन्हें पाकिस्तान जाना होगा? लगभग इन्हीं शब्दों की गूंज हमें मुजफ्फरनगर में सुनाई दी, जहां अलग-अलग जगहों पर मुसलमानों ने बताया कि पुलिस वाले उनके घरों में घुसते समय कह रहे थे कि उन्हें इन घरों से जाना पड़ेगा। वे चकित थे कि पहले के दंगों में तो कभी भी पुलिस ने इस तरह की चेतावनी नहीं दी थी, क्या यह एनआरसी के बाद के भविष्य का संकेत तो नहीं है?